Friday, March 27, 2009

आल्हा-ऊदल की जन्म और कर्म स्थली महोबा में आज कोई रहने को नही तैयार है, पर्यटक भी वहा जाने से कतराते है हालाकि भारतीय रेल विभाग ने पर्यटकों को महोबा से जोड़ने के लिए महोबा और छतरपुर के बीच नयी रेल खण्ड बिछा कर रेल यातायात से जोड़ दिया है विकास के लिए जरूरी वह सारे संसाधन मौजूद है महोबा में, जो की किसी जनपद के विकास के लिए चाहिए , फिरभी महोबा वासी महोबा छोड़ करके कही अन्यत्र जा बसने के फिराक में रहते है इसके पीछे जो कारण है वह है महोबा जनपद में स्थिति पत्थर के खदान और पत्थर तोड़नेवाली मशीने जिनसे चौबीसों घंटे धूल का गुबार उठता रहता है इन मशीनों से पत्थर को तोड़ते समय इतनी धूल निकलती है की दिन के समय भी धुन्द छाई रहती है, जिससे बहुत दूर तक दिखाई नही पड़ता है इस पत्थर तोड़ने की पूरी प्रक्रिया में जो मजदूर लगे रहते है उनके पास इस धूल से बचने के लिए मुहं नाक ढकने वाला मास्क भी नही रहता है , यह सारे मजदूर अपने गमछे को मुहं पर लपेट करके काम करते है जो की किसी भी प्रकार से सुरक्षित नही होता है, क्यूंकि जादातर मजदूर टेरीकाट के गमछे इस्तेमाल करते है जिससे उन्हें साँस लेने में दिक्कत आती है और वह जल्दी - जल्दी मुहं को गमछे से अलग करते है और फ़िर दुबारा बाँध लेते है इस प्रक्रियामें गमछे का जो सिरा अंदर की ओर रहता है वह दुबारा बांधते समय बाहर की ओर हो जाता है और गन्दा वालासिरा मुहं से चिपक जाता है, कैसा है यह बचाव का तरीका जो की ख़ुद ही घातक हो जाता है इन खदानों से जो धूल उड़ती है उनमे बहुत बारीक पत्थर का कण मौजूद रहते है जो की नाक और मुहं के रास्ते इन मजदूरों के फेफडों में जमा होते रहते है जो की एक समय बाद फेफड़े के ऊपरी हिस्से को नुक्सान पहुँचा कर कैंसर जैसी बीमारी में बदल देती है जिसे चिकित्सकीय भाषा में सिलिकोसिस कहते है जिसे हमारे चिकित्सक मानने को भी तैयार नही होते है, इन चिकित्सिकों को फेफड़े की हर बीमारी तपेदिक समझ में आती है

इन मशीनों में पत्थर लाया जाता है उन खदानों से जो की कबरई में मौजूद है। कबरई में सारी खदाने खुली हुई है , जहाँ पहले पहाड़ था आज वहाँ २०० - ३०० फिट गहरी खदान है इन खदानों के चारो तरफ़ कोई बाड़ या दिवार नही है, आदमी या जानवर आसानी से इन खदानों में दिन या रात के समय गिर सकते है कई बार ऐसी घटनाएं हुई है लेकिन आज भी जादातर खदाने बिना किसी दिवार या घेरे की है इन खदानों में विस्फोट कराके पहले चट्टानों को तोड़ा जाता है फ़िर उसके बाद मजदूर हथोड़े से इन बड़े बड़े पत्थर के टुकडो को तोड़ करके ट्रेक्टर में लाद देते है, यह लादने और तोड़ने का काम मजदूर हाथ से करते है और इस काम को करते हुए यह मजदूर किसीभी प्रकार का कोई सुरक्छा कवच नही प्रयोग करते है, जिसकी वजह से इन लोगो को आएदिन चोट लगती रहती है और कई बार तो आँख में चोट लगती है और समुचित चिकित्सा के अभाव में इन लोगों को अपनी आँखे गवानी पड़ती है आँखे खोने की कई घटनाए हुई जिसकी वजह से लोगो में आँखों को बचाव करने के लिए थोडी जागरूकता आयी है, लेकिन यह जागरूकता भी खतरनाक है जैसे, अल्प ज्ञान खतरनाक होता है वैसे ही इन मजदूरों का आँखों का बचाने का तरीका है यह लोग प्लास्टिक के चश्मे इस्तेमाल करते है आँखों को बचाने के लिए, जिसकी गुणवत्ता इतनी ख़राब है की एक छोटा से पत्थर लगते ही टूट जाता है और प्लास्टिक के कण आँखों में जा सकते है और वह भी उतना ही नुक्सान पहुंचाता है जितना की पत्थर का एक कण यह सब खतरे तो उन लोगों के लिए है जो की खदान में कामकर रहे है लेकिन जनपद वासियों को भी इन सब खतरों से दो चार होना पड़ता है रात को महोबा में अगर कोई छत पर सोया है तो सुबह उसके ऊपर धूल की एक परत जमी मिलती है कबरई और महोबा के पेडों का रंग धूल से हरे के बजाय सफ़ेद हो चुका है हरे भरे पहाड़ आज खाईयों में बदल चुके है, खेतों में घास के बजाय सफेदी दिखती है जिन खेतों में गोबर का खाद डाला जाता है उपज बढ़ाने के लिए आज उन खेतों में पत्थर के धूलों की एक परत ज़मी है, ऐसे में उस खेत की उपजाऊ छमता क्या रह गयी होगी इन सब कारणों की वजह से महोबा में जल संकट भी गहराने लगा है
ऐसे में महोबा में रहना कौन चाहेगा? शायद उन खदान मालिकों और खदान में काम करने वाले बंधुआ मजदूरों के अलांवा कोई भी नही

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